सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि जब अदालत को गिरफ्तारी-पूर्व (प्री-अरेस्ट) जमानत मंजूर करने योग्य लगे, खासकर उन मामलों में जो वैवाहिक विवाद से उपजे हों, तो उसे जमानत की शर्तें लगाते समय सावधानी बरतनी चाहिए।
शीर्ष अदालत ने कहा कि उसे यह देखकर दुख हुआ कि गिरफ्तारी-पूर्व जमानत के लिए कठोर शर्तें लगाने के चलन की आलोचना करने वाले कई फैसलों के बावजूद ऐसे आदेश पारित किए जा रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणियां उस फैसले में कीं जिसमें उसने दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के तहत दर्ज अपराध सहित अन्य मामलों में एक व्यक्ति को गिरफ्तारी-पूर्व अंतरिम जमानत देते समय पटना हाई कोर्ट द्वारा लगाई गई शर्त को खारिज कर दिया।
जस्टिस सीटी रविकुमार और जस्टिस पीके मिश्रा की पीठ ने जमानत देते समय अनुपालन योग्य शर्तें रखने की जरूरत पर बल दिया जिसमें सम्मान के साथ जीने के मानवाधिकार को मान्यता दी गई हो, ताकि आरोपित की उपस्थिति, निर्बाध जांच और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित हो सके।
हाई कोर्ट ने संबंधित पक्षों की इच्छा पर विचार करते हुए उन्हें निचली अदालत के समक्ष एक संयुक्त हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया था जिसमें कहा गया हो कि वे एक साथ रहने के लिए सहमत हैं। साथ ही उसमें याचिकाकर्ता को शिकायतकर्ता की सभी शारीरिक और वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने का बयान देना होगा ताकि वह उसके परिवार के किसी भी सदस्य के हस्तक्षेप के बिना सम्मानजनक जीवन जी सके।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि हाई कोर्ट के आदेश से पता चलता है कि अलग हो रहे पक्षों ने पुनर्विचार किया और कटुता को दूर करने व फिर से एक होने की अपनी तत्परता व्यक्त की। पीठ ने साथ ही कहा कि दोनों परिवारों के समर्थन के बिना विवाह के माध्यम से संबंध पनप नहीं सकते, बल्कि नष्ट हो सकते हैं।
पीठ ने कहा कि इस मामले में जिस तरह की शर्तें रखी गई हैं, उन्हें बिल्कुल असंभव और अव्यवहारिक ही कहा जा सकता है। वैवाहिक मामलों में शर्तें इस तरह से रखी जानी चाहिए कि जमानत पाने वाले के साथ-साथ पीड़ित को भी खोया हुआ प्यार व स्नेह वापस पाने और शांतिपूर्ण घरेलू जीवन में वापस आने का मौका मिले।